सुखमनी साहिब व्याखया (असटपदी -2)
सलोकु ॥
दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥ १ ॥
शब्दार्थ :दीन ------------ दरिद्र,निर्धन व्यक्ति, निर्बल ,गरीब। भंजना------समाप्त करने वाला ,नाश ,दूर करने वाला, काटने वाला। घटि--- शरीर मै। नाथ ------प्रभु ,मालिक ,स्वामी; अधिपति। अनाथ----------------बेसहारा , असहाय , दीन। सरणि-----शरण मैं |
अर्थ:- प्रभु जी , आप निर्धन व्यक्ति, निर्बल , गरीबो के दुखो को दूर करने वाले ,काटने वाले हो। प्रत्येक शरीर मैं विराजमान प्रभु,
है बेसहारो के स्वामी, अधिपति, मैं गुरु नानक के साथ , उनके नाम का सहारा लेकर आपकी शरण मैं आया हूँ ।
असटपदी ॥
जह मात पिता सुत मीत न भाई॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥ १ ॥
जह मात पिता सुत मीत न भाई॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥ १ ॥
शब्दार्थ :- जह ------जीवन की यात्रा ,सफर मैं , मोड़। सुत---- संतान,पुत्र। ऊहा-------उस वक्त, समय। महा --------महान, बड़।
भइआन[-----भयानक , खतरनाक, डरावना। जम-----मृत्यु के देवता, यमराज। तह -----वहाँ, उस वक्त। खिन माहि------क्षण मैं ,तुरंत।
उधारी ---बचाव करना ,रक्षा करना। अनिक----कई तरह के, अनेको। पुनहचरन-----पुण्यै करना ,धार्मिक कर्म। परहरै----दूर करना।
गुरमुखि------गुरु के चरणों मैं।
अर्थ:- जहाँ माता, पिता, पुत्र, मित्र एवं भाई, कोई सहायक नहीं होता ,यांनी जहाँ कोई भी किसी का साथ देने मैं असमर्थ हो उस समय , वक्त केवल प्रभु / ईश्वर का नाम ही तेरे साथ होगा तेरा सहायक होगा।
जब डरावने दूतो के दल परेशान करेंगे वहाँ केवल प्रभु का नाम तेरे साथ होगा। जहाँ भयंकर से भयंकर परेशानियाँ तेरे सामने होंगी , वहाँ हरी का नाम उन परेशानियों को क्षण भर मैं दूर कर देगा।
अनेको धार्मिक कर्म काण्ड करके भी जीव अपने किये हुए पापों से बच नहीं सकता , बचने का एक ही उपाये है प्रभु के नाम का सिमरन , प्रभु ही जीव के करोडो पापों को दूर कर सकता है अगर कोई प्रभु के नाम का सिमरन शुद्ध अंतर आत्मा से करता है .
है जीव गुरु की शरण यानि प्रभु को मन मैं समा कर नाम का सिमरन कर , तब नानक की (प्रभु के नाम की ) कृपा से अनंत सुखो की प्राप्ति हो सकती है.
सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥ हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥ लाख करोरी बंधु न परै ॥ हरि का नामु जपत निसतरै अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥ हरि का नामु जपत आघावै ॥ जिह मारगि इहु जात इकेला ॥ तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥ ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥ नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥
शब्दार्थ : सगल ----समस्त , सार। स्रिसटि----- जगत ,दुनिया। लाख करोरी---- लाखो करोड़ों, अनगिनत धन। बंधु-- बंधन ,रोकना। परै------ दूर होना ,छुटकारा होना। निसतरै----पार हो जाना। अनिक--- अनेको। माइआ --- दौलत , भ्रम , इंद्रजाल। तिख---प्यास ,तृष्णा। आघावै----तृप्त होना ,तृष्णा का नाश। तह---- वहाँ। सुहेला---खुशियाँ, सुख देने वाला। धिआईऐ----सिमरन करना
परम-----ऊँचा। गति----स्थान (परमगति) मुक्ति; मोक्ष।
अर्थ : जीव / मनुष्य सारे संसार का राजा बनकर भी ( राजा यानि मनुष्य के पास ज्ञान ,बुद्धि, कर्म करने क्षमता है ) दुखी होता है। प्रभु /
हरी का नाम सिमरन करने से ही सुखी हो सकता है ,क्योंकि लाखो करोड़ों कमा कर भी इस माया/ के बंधन मैं बंधा रहता है इस माया की प्यास तृष्णा से छुटकार नहीं मिल पता , इस माया रूपी सागर से केवल प्रभु के नाम के सिमरन ही जीव को पार लगा सकता है।
माया के अनगिनत रंगो (सुखो से ) मनुष्य की तृष्णा को नहीं मिटा सकते लेकिन प्रभु के नाम के सिमरन करने से जीव संतुष्ट हो जाता है।
जिस मार्ग पर प्राणी अकेला जाता है भाव जब जीव पर दुःख और कष्ट आते है तो उनका सामना जीव को खुद ही करना पड़ता है , तब जीव का सहारा केवल प्रभु ही होता है , और प्रभु ही उसके साथ होता है।
है मन ऐसे प्रभु के नाम का सिमरन करना चाहता हूँ , है नानक, जिस से परमगति /
मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हो।
छूटत नही कोटि लख बाही ॥ नामु जपत तह पारि पराही ॥ अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥ हरि का नामु ततकाल उधारै ॥ अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥ नामु जपत पावै बिस्राम ॥ हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥ हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥ ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥ नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥
शब्दार्थ :- बाही------भाइयों का साथ ,बाजुओं के साथ। छूटत------मुक्ति, मुक्त होना , रिहाई,बचना। पारि---- पार हो जाना ,दूसरीऔर चले जाना। पराही-----हो जाते है , हो जाना। हउ-----अपनापन ,निजत। रंगि---प्रेम भाव मैं रंगना।
अर्थ :- लाखो करोड़ों भुजाओं यानि भाइयोंऔर बन्दुओं के होते हुए मनुष्य को उसके कर्मो के फल से केवल प्रभु के नाम का सिमरन ही पार लगा सकता है।
यदि मनुष्य पर कोई ऐसा दुःख और संकट आ जाये जो उसे परेशान करता हो तो ,केवल प्रभु का सिमरन करने से तत्काल ही उस मुश्किल से पार हो सकते है।
जीव जन्म मरण के चक्कर में उलझा रहता है ( बार - बार जन्म लेना और बार- बार मरना ) इधर उधर भटकता रहता है , प्रभु के नाम का सिमरन करने से ही उसका उधार हो सकता है यानि मनुष्य की भटकन ख़तम हो सकती है।
आज जीव अपनेपन, अहँकार और अहम की मैल से भरा हुआ है वह कभी भी अपने मन को साफ करने की और ध्यान नहीं देता , यदि वह हरि के नाम का जाप सिमरन करे तो उसके करोड़ों पापों का नाश हो सकता है। है मन उस प्रभु ,हरी के नाम के सिमरन मैं ऐसे रंग जा ,लीन हो जा के, है नानक (प्रभु ) के द्वारा गुरमुखो, साधुओ (जो प्रभु के साथ लीन हो चुके हो ) उनकी सांगत ,साथ मिल सके।
जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥ हरि का नामु ऊहा संगि तोसा जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥ हरि का नामु संगि उजीआरा ॥ जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥ हरि का नामु तह नालि पछानू ॥ जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥ तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥ जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥ तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥4
शब्दार्थ :- जिह --- जिस। मारग------रास्ते ,पथ,मार्ग। कोसा---- कोस ,नाप जाना। ऊहा -----वहाँ, उस समय। संगि--- साथ ,मेल, संगति। तोसा -----पूँजी,कमाई। पैडै----- रास्ता , मार्ग मैं। गुबारा------अँधेरा ,अंधकार ,अंधकार , अँधियारा। उजीआरा ----रोशनी ,प्रकाश। पंथि---पथ मैं ,रास्ते मै।
सिञानू ---पहचानना ,। पछानू-----पहचाना जाना ,स्वीकारा जाना। भइआन-----डरावना , भयानक ,खतरनाक। तपति-----तपश ,जलाने वाली। घाम-----गर्मी । छाम-----छाया,परछा। त्रिखा-----प्यास ,तृष्णा। आकरखै -------लुभाना ,आकर्षित करना।
तुझु--------तुझे। बरखै -------बरसना,बारिश होना।
अर्थ :- जीवन की यात्रा को नापा नहीं जा सकता की कितनी लम्बी और कष्टों से भरी हुई है ,उस लम्बे सफर /यात्रा मैं वहाँ केवल प्रभु नाम के सिमरन की पूँजी,कमाई ही साथ चलेगी।
उस सफर के रास्ते पर , मार्ग पर विषय विकारों का घोर अंधकार होगा जहाँ कुछ भी नजर नहीं आयेगा तब प्रभु नाम के सिमरन की कमाई रौशनी, प्रकाश के रूप मैं तेरे साथ चलेगी और तेरे जीवन का पथ प्रदर्शन करेगी।
जीवन यात्रा के पथ पर जब तुझे तेरा कोई पहचानने बाला नहीं मिलेगा यानि बुरे वक्त मैं तेरी मदद करने बाला नहीं होगा ,तब हरी का नाम ही तेरी पहचान बन कर तेरे साथ चलेगा।
जिंदगी के सफर मै जब भीषण,भयानक विकारों की गर्मी की तपश ,जलन होगी तब केवल प्रभु नाम के सिमरन की कमाई एक शीतल छाया बनकर साथ देगी।
है जीव जहाँ माया के पदार्थों की प्यास,तृष्णा तुझे बार बारआकर्षित/ परेशान करेगी, वहाँ नानक (प्रभु ) नाम के सिमरन की अमृत बर्षा तेरी उस सारी तपिश शीतल कर देगी, बुझा देगी।
भगत जना की बरतनि नामु ॥ संत जना कै मनि बिस्रामु ॥ हरि का नामु दास की ओट ॥ हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥ हरि जसु करत संत दिनु राति ॥ हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥ हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥ पारब्रहमि जन कीनो दान ॥ मन तन रंगि रते रंग एकै ॥ नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥ 5
शब्दार्थ :- बरतनि------ इस्तेमाल,जरुरत, प्रयोग मैं लाने वाली। मनि----- मन मैं। बिस्रामु------विराजमान। ओट ------सहारा ,आधार। उधरे------कल्याण ,भला होना। अउखधु -------औषधि, दवाई। कमाति-----कमाई करना ,प्राप्त। निधानु------- खजाना ।
कीनो----करता, किया। बिरति-------मन की दशा या अवस्था , स्वभाव। बिबेकै--------भले बुरे का ज्ञान,समझ,परख।
अर्थ :- प्रभु कै नाम का सिमरन भक्तो की जरुरत है , उनके जीवन का आधार प्रभु का नाम होता है ,क्योंकि प्रभु स्वयं अपने भगतो कै मन मैं विराजमान रहते है।
हरी (प्रभु) नाम का सिमरन प्रभु कै भगतो ,दासों का सहारा ,आश्रय है , हरी (प्रभु ) नाम के सिमरन से करोड़ों भगतो के विकार दूर हो जाते है जिससे उनका कल्याण हो जाता है।
हरि के भक्त दिन रात हरि सिमरन करते है, हरि नाम की महिमा का गुणगान करते हैं जिससे भगत लोग सिमरन रूपी औषधि की कमाई करते हैं यानि ज्ञान की प्राप्ति करते हैं।
हरी के भगतो के पास तो हरी (प्रभु) नाम के सिमरन का खजाना हैं जो प्रभु ने स्वयं श्रद्धा से भगतो को दिया हैं उनके मन मैं विराजमान किया हैं।
जो भगत तन मन से हरि के रंग में यानि नाम के सिमरन मैं रंग जाते है उनके विचार और स्वभाव (मन की दशा या अवस्था) मैं बदलाव आ जाता हैं उनमैं सत्य और असत्य, सही और गलत को पहचानने की शक्ति /ऊर्जा आ जाती है|
हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ॥ हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥ हरि का नामु जन का रूप रंगु ॥ हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥ हरि का नामु जन की वडिआई ॥ हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥ हरि का नामु जन कउ भोगु जोगु ॥ हरि नामु जपत कछु नाहि बिओगु ॥ जनु राता हरि नाम की सेवा ॥ नानक पूजै हरि हरि देवा ॥ ६ ॥
शब्दार्थ :- जन-----भगतो। कउ------के लिये। मुकति-----जन्ममरण रूप बंधन) से छुटकारा मिलना; मोक्ष । जुगति ---तरीका, ढंग। त्रिपति -----संतुष्टि,संतोष, तृप्त। भुगति ---- भोगना ,(माया से लिप्त पदार्थ जो मन को भ्रम मैं रखे । भंगु---- अड़चन ,रूकावट। वडिआई ----सम्मान, इज़्ज़त, सत्कार । बिओगु------किसी से बिछुड़ने या दूर होने की अवस्था या भाव,दुःख ,जुदाई। राता------मस्त ,परम प्रसन्न।
अर्थ :--- भगतो के लिये तो प्रभु नाम सिमरन ही एक युक्ति है (एक चाबी है ) जो मोक्ष के द्वार खोल देती है ,जन्ममरण से छुटकारा मिल जाता है, हरी के भगत तो प्रभु नाम सिमरन से ही तृप्त हो जाते,उनका तो भोजन ही सिमरन है , माया के पदार्थो से छुटकारा मिल जाता है।
हरी नाम का सिमरन ही भगतो की सुंदरता है ,जो जीव हरी नाम का सिमरन करता है उसके रास्ते मैं कभी भी कोई भी बाधा और रूकावट नहीं आती।
प्रभु नाम के सिमरन से ही प्रभु भगत का सम्मान, इज़्ज़त, सत्कार होता है, हरी नाम सिमरन से ही भगत को जगत मैं नाम की सोभा और प्रसिद्धि मिलती है।
जब प्रभु भगत, प्रभु नाम का सिमरन करता है और उस सिमरन का उपयोग, अनुभव अपने मन और शरीर के साथ जोड़ लेता है तब भगत के मन मैं किसी भी तरह का दुःख, संताप, किसी से बिछुड़ने या दूर,जुदा होने का एहसास नहीं होता , क्योंकि भगत के मन के अंदर केवल प्रभु का सिमरन चलता रहता है।
हरी(प्रभु का ) भगत हमेशा ही हरी नाम के सिमरन की सेवा मैं मस्त और लीन रहता है ,है नानक , भगत तो हरी को अपना देव समझ कर पूजता है और उसका सिमरन करता रहता है।
हरि हरि जन कै मालु खजीना ॥ हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥ हरि हरि जन कै ओट सताणी ॥ हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥ ओति पोति जन हरि रसि राते ॥ सुंन समाधि नाम रस माते ॥ आठ पहर जनु हरि हरि जपै ॥ हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥ हरि की भगति मुकति बहु करे ॥ नानक जन संगि केते तरे ॥ ७ ॥
शब्दार्थ :- खजीना -----खजाना ,भंडार। दीना-----देना। ओट-----असर ,सहारा। सताणी -----मजबूत ,बलवान। प्रतापि---- ऐसा ताप जिसमें खूब चमक हो, तेज़ हो। अवर ---और ,और कोई। जाणी----जानना। ओति पोति-----हर तरह से ,सम्पूर्ण ,तमाम।
रसि ------रस। राते ------रंगे हुए ,भीगे हुए। सुंन समाधि ---------गहरी, आनंदमयी और ध्यानस्थ अवस्था। माते -----मिल जाना ,रंग जाना ,एक हो जाना। जनु---भगत। बहु -----बहुत। केते----- कई जीव।
अर्थ:-- भगत का वास्तविक असली दौलत खजाने का भंडार है प्रभु (हरी ) नाम का सिमरन , जो प्रभु ने स्वयं अपने भगत को दिया है।
भगत के लिये तो उसका सबसे मजबूत ,बलवान बड़ा सहारा , हरी(प्रभु)नाम का सिमरन ही है , भक्त ने जो तेज , चमक ,तप प्रभु नाम के सिमरन मैं पाया और किसी मैं नहीं देखा।
भगत सम्पूर्ण रूप से, हर तरह से हरी सिमरन के रस मैं लीन है रंगा हुआ है, भगत हरी सिमरन की उसचर्म अवस्था मैं, आनंदमयी और ध्यानस्थ अवस्था मैं रहते है, जहाँ विचार नहीं होते केवल शुन्य ही होता है। प्रभु के भगत आठों पहर हरी नाम का सिमरन करते है , भगत प्रभु सिमरन के रंग मैं ऐसा रंग जाता है की उसकी प्रसिद्धि उसको छिपने नहीं देती। प्रभु(हरी) नाम के सिमरन मैं लीन होकर अनेक जीवो को मोक्ष और मुक्ति की प्राप्ति हुई है | प्रभु की भक्ति करने वाले भक्तो की संगत से अनेक लोगो का भी उद्धार हुआ है |
पारजातु इहु हरि को नाम ॥ कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥ सभ ते ऊतम हरि की कथा ॥ नामु सुनत दरद दुख लथा ॥ नाम की महिमा संत रिद वसै ॥ संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥ संत का संगु वडभागी पाईऐ ॥ संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥ नाम तुलि कछु अवरु न होइ ॥ नानक गुरमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥ २
शब्दार्थ :- पारजातु;------वृक्ष का नाम है, कहा जाता है की स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक है जो मनोकामनाए पूरी करता है। कामधेन----------स्वर्ग की गाय। गाम--- गाना,गायन ,गीत। दुरतु-------- दुष्टता,पाप। नसै ----नाश , दूर हो जाना। तुलि ----तोलना ,बराबर।
जनु कोइ------कोई एक।
अर्थ :- प्रभु नाम का सिमरन करना एक पारजातु है और प्रभु नाम का गुणगान करना कामधेनु ही है, प्रभु सिमरन करने से सभी इच्छायै और मनोकामनाए पूर्ण हो जाती है ।
हरी नाम की महिमा ,बड़ाई ,सिमरन करना पारजातु और कामधेनु से भी अधिक उत्तम है , प्रभु(हरी) का सिमरन करने और सुनने से जीवन के सारे कष्ट ,दुःख ,विकार दूर हो जाते है।
प्रभु नाम के सिमरन का वास्तविक ठहराव,बड़ाई सन्तों के ह्रदये/ मन मैं होता है,प्रभु, सिमरन रूप मैं स्वयं विराजमान रहते है, और ऐसे ही सन्तों की शरण मैं जाने से और उनकी किरपा से , उनके सिमरन के तेज से जीवन के कष्ट ,विकार तुरंत /तत्काल ही दूर भाग जाते है।
ऐसे संत भक्त बड़े भाग्यों से मिलते है, जिनके मन मैं प्रभु (हरी ) स्वयं सिमरन के रूप मैं विराजमान रहते है ,ऐसे सन्तों की सेवा करने से प्रभु नाम सिमरन का अच्छा फल मिलता है।
प्रभु नाम के सिमरन के बराबर कुछ भी नहीं ,नाम सिमरन ही सब से श्रेष्ठ है। प्रभु नाम सिमरन की भगति किसी विरले भाग्यवान को ही प्राप्त होती है।
सुखमनी साहिब व्याख्या असटपदी-1 के लिये
आप जी के चरणों मैं हाथ जोड़ के बेनती हैं आगर किसी भी तरह की कोई गलती /त्रुटि हो तो क्षमा करना और अपनी कीमती रायै जरूर देना जी।
आप जी के चरणों मैं हाथ जोड़ के बेनती हैं आगर किसी भी तरह की कोई गलती /त्रुटि हो तो क्षमा करना और अपनी कीमती रायै जरूर देना जी।